पौराणिक >> बुद्धि दाता गणेश बुद्धि दाता गणेशभगवतीशरण मिश्र
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औपन्यासिक शैली में प्रथम पुस्तक जो भगवान गणेश से पाठकों का अन्तरंग परिचय कराएगी।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भगवान गणेश सर्वपूज्य देवता हैं। किसी भी शुभ कार्य के आरम्भ में इनकी
पूजा अवश्य होती है। बच्चों की पढ़ाई का आरम्भ (अक्षर-ज्ञान) हो अथवा किसी
पत्र का प्रारम्भ, ‘श्री गणेशाय नमः’ सर्व प्रथम
अंकित होता
है। यह है गणेश का महत्त्व जो किसी देवता को नहीं मिला।
उसका प्रमुख कारण है कि गणेश विघ्नहर्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनकी उपासना कर कोई कार्य आरम्भ हो तो वह निर्विध्न सफल होता है।
गणेश बुद्धि-प्रदाता हैं। बुद्धि के बिना कोई कार्य सम्पादित नहीं हो सकता। इस कारण भी गणेश इतने लोकप्रिय हैं।
यह कलियुग है। इस युग में गणेश और दुर्गा (चण्डी) ही भक्तों के सार्वाधिक सहायक होते हैं-
उसका प्रमुख कारण है कि गणेश विघ्नहर्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनकी उपासना कर कोई कार्य आरम्भ हो तो वह निर्विध्न सफल होता है।
गणेश बुद्धि-प्रदाता हैं। बुद्धि के बिना कोई कार्य सम्पादित नहीं हो सकता। इस कारण भी गणेश इतने लोकप्रिय हैं।
यह कलियुग है। इस युग में गणेश और दुर्गा (चण्डी) ही भक्तों के सार्वाधिक सहायक होते हैं-
कलौ चण्डी विनायकौ
इसलिए विनायक अर्थात् गणेश के संबंध में सबको अधिक से अधिक जानकारी होनी चाहिए। दुर्गा पर भी हम लिखेंगे, अन्य प्रसिद्ध देवी-देवताओं पर भी।
ऐसी पुस्तकों की आवश्यकता इसलिए है कि नई पीढ़ी, पाश्चात्य प्रभाव में आकर अपनी समृद्ध संस्कृति को ही भूलती जा रही है। अपने प्राचीन ग्रन्थों और अपने उपास्य दैवी शक्तियों की जानकारी उसके पास ‘न’ के बराबर है। धर्म बाँधता है। धर्म-च्युत नई पीढ़ी बिखर रही है।
राष्ट्र के एकीकरण को सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम के सभी भारतवासी उस धार्मिक एकता के सूत्र में आबद्ध रहें जो हमारी प्राचीन विरासत है। अन्य भाषाओं में तो ऐसी पुस्तकें कुछ हद तक उपलब्ध भी हैं हिन्दी में ऐसा प्रयास कम ही हुआ है।
अपने देवी-देवताओं, अपने महापुरुषों को जाने बिना हम अपने चरित्र का गठन भी कैसे कर सकते हैं ? इसी कारण औपन्यासिक शैली में प्रस्तुत यह प्रथम पुस्तक प्रस्तुत है जो भगवान गणेश से पाठकों का अन्तरंग परिचय कराएगी।
अब तक मैंने कई वृहत् पौराणिक और औपन्यासिक ग्रन्थ लिखे हैं जो 500-600 पृष्ठों के हैं। इनकी भाषा- शैली भी बहुत उच्च स्तर की है। विज्ञ पाठकों के लिए ये अधिक उपयोगी हैं पर आम पाठकों के लिए सरल, सुबोध भाषा में कुछ देने की आवश्यकता थी, इसीलिए इस पुस्तक की भाषा को सरल, सहज और इसकी शैली को आकर्षक रखा गया है।
श्री गणेश पर सामग्री बहुत स्थानों पर उपलब्ध है, अतः यह संभव है कि कई प्रसंगों में भिन्नता हो। पाठकों की जानकारी भी इनसे मेल नहीं खाती हो पर इस पुस्तक में उन्हीं तथ्यों को रखा गया है जो एक से अधिक पुस्तकों में प्राप्त हैं। अब कार्तिकेय और गणेश की उम्र को लेकर भी विवाद है। कई स्थानों पर कार्तिकेय को अग्रज माना गया है, तो कई जगह गणेश को। हमने कार्तिकेय को अग्रज और गणेश को उनके अनुज के रूप में लिया है। जिन ग्रन्थों में गणेश संबंधी विवरण उपलब्ध हैं, उनमें प्रमुख हैं –
1.अथर्व वेद, 2.ब्रह्म पुराण, 3.ब्रह्म वैवर्त्त पुराण, 4.महाभारत पुराण, 5.गणेशोपनिषद्, 6.गणेश पुराण, 7.मुद्गल पुराण, 8.शिव पुराण, 9. उपनिषद् ग्रन्थ, 10.गणेश गीता, 11. गणपति संभव आदि।
प्रस्तुत पुस्तक इन सभी ग्रन्थों पर कुछ-न-कुछ सीमा तक आधरित है, अतः उसमें जो कुछ है, वह तथ्यपरक है। औपन्यासिक शैली केवल रोचकता की दृष्टि से अपनाई गई है। कल्पना की उड़ान इसमें नहीं है। ऐसी पुस्तकों में यह संभव भी नहीं है।
एक बात और। कोई इस भ्रम में नहीं रहे कि गणेश केवल भारतवासियों के उपास्य देवता हैं, विदेशों में भी कई स्थानों पर इनके मन्दिर और इनकी मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। कोई मूर्तियों को तो तीन-चार हजार वर्ष प्राचीन माना जाता है। ऐसे देश हैं–चीन, जापान, तिब्बत, जावा, मलयदीप पुंज, अमेरिका, दक्षिण अमेरिका (ब्राजील), तुर्किस्तान, बर्मा, बाली, बोर्नियों, नेपाल आदि।
ऐसे लोकप्रिय भगवान गणेश आपका भी मंगल करें, यही कामना है।
इस पुस्तक के प्रणयन में जिन लोगों की प्रेरणा और सहायता उपलब्ध हुई चन्द भारद्वाज, श्री राधेश्याम तिवारी, श्री अमर नाथ ‘अमर’, विदुषी डा.किरण कुमारी, व्याख्याता संस्कृत विभाग, गंगा देवी महिला कॉलेज, पटना, डॉ. शिव नारायण, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, डॉ. कृष्णानन्द कृष्ण और कम्प्यूटटिस्ट रूबी।
आत्माराम एंड संस के श्री सुधीर के विशेष आग्रह से यह पुस्तक शीघ्र लिखी गई। उनका और उनके सहयोगियों का सप्रेम आभार। अस्तु।
सांकष्टी श्री गणेश चतुर्थी
-डॉ. भगवतीशरण
मिश्र
1
हिमालय का शिखर अपने प्राकृतिक सौन्दर्य को
लेकर विख्यात है। लेकिन
ढूँढ़ों तो यहाँ वृक्ष का एक पत्ता भी नहीं मिलेगा, वृक्ष तो दूर की बात
है। फिर भी मलय-पवन यहाँ डोलता रहता है। नीचे के देवदारु वृक्षों की गन्ध
को लेकर वह उड़ता है। और उसे हिमालय तथा कैलास के शिखर पर बिखेर देता है।
नन्दन-कानन कैलास से दूर नहीं है। वहाँ की सुरभित वायु कैलास को सदा
गन्ध-पूरित करती रहती है। सार्वाधिक आकर्षक होती हैं आसमान से झड़ती बर्फ
की उज्जवल फुहारें। रूई के फाहे हों जैसे।
कैलास पर शिव-परिवार का वास है। जटा-जूटधारी त्रिशूल-डमरू से शोभित, गले में सर्प-हार कमर में व्याघ्र चर्म, शरीर पर चिता-भस्म, जटा से प्रवाहित गंगा-धारा और मस्तक पर शोभित अर्द्धचन्द्र, वाले शिव का स्वरूप विलक्षण है। किन्तु वह भयकारी नहीं है। सर्प उनके कण्ठ-हार भले हों किन्तु वे किसी का कुछ बिगाड़ते नहीं। भस्म उनके कपूर के समान गोरे अंग के सौन्दर्य को छिपाने में सफल नहीं होता। सौम्य मुख से कोमलता फूटती रहती है जो कमल-पुष्प के पराग को भी मात कराती है। ऐसे में भंवरे उनके मुख के चारों ओर चक्कर नहीं काटते तो मात्र शिव-कण्ठ में पड़े सर्पों की लपलपाती जिह्वा के कारण।
बगल में त्रिशूल और डमरू गाड़ कर ध्यानस्थ बैठे शिव की शोभा निराली होती है।
पशुपति भगवान शिव की पत्नी पार्वती ने उन्हें कठिन तपस्या से प्राप्त किया था। वह हिमालय की पुत्री थी। पूर्व जन्म में सती के रूप में वह शिव की भार्या रह चुकी थी। अतः इस जन्म में भी उन्होंने कई वर्षों तक अन्न-जल यहाँ तक कि पेड़ के पत्तों को भी खाना छोड़ कर शिव को पाने के लिए घोर तपस्या की थी। इसीलिए उसका एक नाम अपर्णा भी पड़ा।
शिव-पार्वती के दो पुत्रों में एक गणेश थे और एक कार्तिकेय, कार्तिकेय के छह मुख होने के कारण गणेश को उन्हें चिढ़ाने में बहुत आनन्द आता था। बाल प्रवृत्ति के कारण गणेश को यह प्रतीत नहीं होता था कि उन्हें अपने बड़े भाई का सम्मान करना चाहिए और चिढ़ा-चिढ़ा कर आनन्दित नहीं होना चाहिए। कार्तिकेय बल-बुद्धि में बहुतों से आगे थे। उनकी वीरता का वस्तुतः कोई उत्तर नहीं था। तारकासुर राक्षस को मारने के लिए ही देवताओं की तपस्या पर उनका जन्म हुआ था।
इसीलिए उन्हें छः मुख थे जिससे वे सभी दिशाओं में एक साथ देख सकते थे। छह मुखों से भोजन ग्रहण कर सकते थे ताकि शीघ्र ही युवा होकर राक्षसों से युद्ध कर सकें और देवताओं के महान् दुश्मन का वध कर सकें। पुष्टकर फलों पर वह बहुत ज़ोर देते थे। सुस्वादु फलों को छह मुखों से देखते-देखते उदरस्थ कर जाते थे।
गणेश को कार्तिकेय के इस भाग्य पर स्वभावतः ईर्ष्या होती थी। वे कार्तिकेय के सामने सजी टोकरियों में भरे फलों से कुछ को लेकर खाना चाहते लेकिन एक मुख वाले गणेश कार्तिकेय के कहाँ पार पाते ? दो-चार फलों को ही खा पाते कि कार्तिकेय सभी टोकरियों के फलों पर हाथ साफ कर जाते।
गणेश चिढ़ाकर उन्हें छह मुखी (षडानन) कहकर भाग खडे़ होते, साथ ही बोलते जाते, ‘ऐसा भी कोई प्राणी होता है, जिसके एक नहीं छह मुख हों ! देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर, मनुष्य किसी को ऐसा मुख नहीं मिला।’
भागते हुए गणेश को पकड़ने के लिए कार्तिकेय उनके पीछे दौड़ते पर छह मुख वाले कार्तिकेय के समक्ष बालक गणेश अभी बहुत हल्के पड़ते थे, अतः उन्हें पकड़ नहीं पाते और थक-हार के लौट आते। यह बात पृथक है कि कुछ वर्षों बाद ही गणेश स्वयं पर्याप्त भारी और गुलथुल हो आए। लड्डुओं के मोह ने उन्हें लम्बोदर बना दिया और तेजी से भागना उनके बस की बात नहीं रही। तब उन्होंने कार्तिकेय से मेल कर लेना ही उचित समझा। लाभ दोनों को हुआ। गणेश को कार्तिकेय की टोकरियों के फल पर हाथ साफ करने का अवसर मिल गया तो कार्तिकेय को गणेश के प्रिय मोदकों को जी भर खाने का सुअवसर प्राप्त हो गया।
कैलास पर पूर्ण शान्ति का साम्राज्य अब भी नहीं व्याप्त हो सका। इसका कारण कुछ और ही था जो अपने में अद्भुत था। कार्तिकेय ने बड़े होने पर अपने लिए मयूर को वाहन के रूप में चुना। गणेश ने सोचा कि उनका वाहन कुछ ऐसा हो जो अधिकांश लोगों के द्वारा उपेक्षित हो। वह प्राणी छोटा हो चाहे बड़ा। गणेश को उसकी कोई चिन्ता नहीं थी। वह अपना वाहन सावधानीपूर्वक ढूँढ़ने लगे।
अन्ततः उन्हें वह प्राणी मिल ही गयी। वह था मूषक। इससे उपेक्षित प्राणी कोई और नहीं हो सकता था। वह बेचारा कीड़ों-मकोड़ों को खाकर पृथ्वी के पर्यावरण को सन्तुलित रखने में सहायक होता है किन्तु उसी के पीछे पड़े रहते हैं। इसलिए उसे धरती के नीचे एक नहीं कई छिद्र बनाकर रहना पड़ता है। एक से खतरे का अनुभव हो तो दूसरे से निकलने का प्रयास करता है, दूसरे से हो तो तीसरे से। श्वान और श्रृगाल की तरह के हिंसक जीव तो इसके पीछे पड़े ही रहते हैं।
ऊपर आकाश में उड़ने वाले गृद्ध, काक एवं चील के समान पक्षी भी चोंच के प्रहार से लहूलुहान कर देते हैं और अपना आहार बनाने को उत्सुक रहते हैं। मनुष्य तो खूब हैं। खाद्य-अखाद्य का महत्त्व कुछ नहीं समझते हैं। इनकी एक विशेष जाति की जिह्ना को मूषक के मांस की ही स्वाद लगी हुई है। ये लोग मूषक के छिद्रों में पानी डाल कर उसे बाहर निकलने को बाध्य करते हैं और फिर उसकी हत्या कर अपनी झोली में डाल लेते हैं।
मनुष्य का मित्र यह मूषक उसके घर में उसके साथ ही रहना चाहता है। कभी-कभी उत्सुकतावश कुछ कपड़े, कुछ कागज़ अवश्य ही कुतर देता है। इसके फलस्वरूप इसे विशेष पिंजड़ों में फंसा कर गाँव, नगर के बाहर कर दिया जाता है। अधिक क्रूर मनुष्य हुआ हो तो चूहेदानी में रोटी का एक टुकड़ा डालकर इस गिरीह को अपने प्राणों से हाथ गवांने को बाध्य कर देता है।
मनुष्य एवं हिंसक पशुओं, पक्षियों के अलावा इसकी सबसे बड़ी शत्रु बिल्ली होती है। मूषक विचारे इन व्याघ्र की मौसी बिल्ली से इतने डरते हैं कि जिस घर में बिल्ली के म्याउँ सुनाई पड़ जाए उससे सभी के सभी भाग खड़े होते हैं।
गणेश ने सोचा, मूषक विचारा देखने में कितना सुन्दर होता है ! भूरे रंग का, लंबी पूँछ वाला यह छोटा-सा जीव मन को आकृष्ट कर लेता है। यह भागने में भी बहुत मन्द नहीं है। भले कार्तिकेय के मयूर की तरह उड़ता नहीं हो। और कार्तिकेय का मोर उड़ता भी क्यों है ! फुदकता है, वह कोई हंस तो ठहरा नहीं, बगला तो है नहीं, अतः हमारा मूषक बहुत बुरा वाहन नहीं सिद्ध होगा। साथ ही मेरा वाहन बन जाने से शायद और, प्राणियों को तो नहीं, कम-से-कम मनुष्य को तो इसकी हत्या करने में या इसे उत्पीड़ित करने में कई बार सोचना पड़े। रह गया मेरा भारी-भरकम शरीर। इसे ढोना मूषक के बस की बात क्या होगी, किन्तु मैं योगिराज शिव का पुत्र हूँ, अतः योगबल से अपने शरीर को इतना हल्का बना लूँगा कि उसकी पीठ पर कोई भार नहीं आएगा। अतः गणेश ने मूषक को अपने वाहन के रूप में चुन लिया।
उधर पार्वती का वाहन सिंह था। शिव ने वृषभ (नन्दी) को अपना वाहन बना रखा था। अशान्ति स्वाभाविक थी। शिव-वाहन नन्दी पर पार्वती-वाहन सिंह की दृष्टि लगी रहती थी। कब अवसर मिले की उसे चपेट में लें। शिव के गले में लिपटे सर्पों को मूषक प्यारा था। गणेश के वाहन मूषक को कार्तिकेय के मयूर से भी कम भय नहीं था।
शिव परेशान रहते। सबों के मध्य सन्तुलन बनाए रखना उनके लिए सदा सिरदर्द बना रहता। शिव को अपने गले में लिपटे भुजंगों के लिए कार्तिकेय का मयूर भी कम घातक नहीं था।
यह अशान्ति तो चलती ही रहती थी किन्तु इसी मध्य आनन्द-प्रमोद भी कैलास-शिखर पर होता रहता। कार्तिकेय और गणेश कभी-कभी झगड़ जो लेते हों किन्तु भाई-भाई का प्रेम भी अपने रूप में पनपता रहता था। कार्तिकेय के लिए फिर भी सबसे खटकने वाली बात गणेश का उनके छह मुखों को लेकर चिढ़ाने वाली थी। इसका भी वे क्या कर सकते थे ? छह मुख तो उन्हें मिल ही चुके थे। गणेश के चिढ़ाने का भी वे क्या करते ? ऐसी स्थिति में वे मन मसोस कर रह जाते। गणेश सब कुछ के बाद कार्तिकेय को चिढ़ाने से बाज नहीं आते और अक्सर उन्हें छह मुखी (षडानन) कहकर चिढ़ाते ही रहते। गणेश को अफसोस हो रहा था कि उन्हें पता होता कि एक दिन वह स्वयं ही अपने मुँह को लेकर विस्मय के पात्र बन जाएँगे तो वे कार्तिकेय को इस तरह कभी नहीं चिढ़ाते।
अन्ततः वह दिन आ ही गया जब गणेश कार्तिकेय को चिढ़ाने से बाज आना पड़ा।
कैलास पर शिव-परिवार का वास है। जटा-जूटधारी त्रिशूल-डमरू से शोभित, गले में सर्प-हार कमर में व्याघ्र चर्म, शरीर पर चिता-भस्म, जटा से प्रवाहित गंगा-धारा और मस्तक पर शोभित अर्द्धचन्द्र, वाले शिव का स्वरूप विलक्षण है। किन्तु वह भयकारी नहीं है। सर्प उनके कण्ठ-हार भले हों किन्तु वे किसी का कुछ बिगाड़ते नहीं। भस्म उनके कपूर के समान गोरे अंग के सौन्दर्य को छिपाने में सफल नहीं होता। सौम्य मुख से कोमलता फूटती रहती है जो कमल-पुष्प के पराग को भी मात कराती है। ऐसे में भंवरे उनके मुख के चारों ओर चक्कर नहीं काटते तो मात्र शिव-कण्ठ में पड़े सर्पों की लपलपाती जिह्वा के कारण।
बगल में त्रिशूल और डमरू गाड़ कर ध्यानस्थ बैठे शिव की शोभा निराली होती है।
पशुपति भगवान शिव की पत्नी पार्वती ने उन्हें कठिन तपस्या से प्राप्त किया था। वह हिमालय की पुत्री थी। पूर्व जन्म में सती के रूप में वह शिव की भार्या रह चुकी थी। अतः इस जन्म में भी उन्होंने कई वर्षों तक अन्न-जल यहाँ तक कि पेड़ के पत्तों को भी खाना छोड़ कर शिव को पाने के लिए घोर तपस्या की थी। इसीलिए उसका एक नाम अपर्णा भी पड़ा।
शिव-पार्वती के दो पुत्रों में एक गणेश थे और एक कार्तिकेय, कार्तिकेय के छह मुख होने के कारण गणेश को उन्हें चिढ़ाने में बहुत आनन्द आता था। बाल प्रवृत्ति के कारण गणेश को यह प्रतीत नहीं होता था कि उन्हें अपने बड़े भाई का सम्मान करना चाहिए और चिढ़ा-चिढ़ा कर आनन्दित नहीं होना चाहिए। कार्तिकेय बल-बुद्धि में बहुतों से आगे थे। उनकी वीरता का वस्तुतः कोई उत्तर नहीं था। तारकासुर राक्षस को मारने के लिए ही देवताओं की तपस्या पर उनका जन्म हुआ था।
इसीलिए उन्हें छः मुख थे जिससे वे सभी दिशाओं में एक साथ देख सकते थे। छह मुखों से भोजन ग्रहण कर सकते थे ताकि शीघ्र ही युवा होकर राक्षसों से युद्ध कर सकें और देवताओं के महान् दुश्मन का वध कर सकें। पुष्टकर फलों पर वह बहुत ज़ोर देते थे। सुस्वादु फलों को छह मुखों से देखते-देखते उदरस्थ कर जाते थे।
गणेश को कार्तिकेय के इस भाग्य पर स्वभावतः ईर्ष्या होती थी। वे कार्तिकेय के सामने सजी टोकरियों में भरे फलों से कुछ को लेकर खाना चाहते लेकिन एक मुख वाले गणेश कार्तिकेय के कहाँ पार पाते ? दो-चार फलों को ही खा पाते कि कार्तिकेय सभी टोकरियों के फलों पर हाथ साफ कर जाते।
गणेश चिढ़ाकर उन्हें छह मुखी (षडानन) कहकर भाग खडे़ होते, साथ ही बोलते जाते, ‘ऐसा भी कोई प्राणी होता है, जिसके एक नहीं छह मुख हों ! देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर, मनुष्य किसी को ऐसा मुख नहीं मिला।’
भागते हुए गणेश को पकड़ने के लिए कार्तिकेय उनके पीछे दौड़ते पर छह मुख वाले कार्तिकेय के समक्ष बालक गणेश अभी बहुत हल्के पड़ते थे, अतः उन्हें पकड़ नहीं पाते और थक-हार के लौट आते। यह बात पृथक है कि कुछ वर्षों बाद ही गणेश स्वयं पर्याप्त भारी और गुलथुल हो आए। लड्डुओं के मोह ने उन्हें लम्बोदर बना दिया और तेजी से भागना उनके बस की बात नहीं रही। तब उन्होंने कार्तिकेय से मेल कर लेना ही उचित समझा। लाभ दोनों को हुआ। गणेश को कार्तिकेय की टोकरियों के फल पर हाथ साफ करने का अवसर मिल गया तो कार्तिकेय को गणेश के प्रिय मोदकों को जी भर खाने का सुअवसर प्राप्त हो गया।
कैलास पर पूर्ण शान्ति का साम्राज्य अब भी नहीं व्याप्त हो सका। इसका कारण कुछ और ही था जो अपने में अद्भुत था। कार्तिकेय ने बड़े होने पर अपने लिए मयूर को वाहन के रूप में चुना। गणेश ने सोचा कि उनका वाहन कुछ ऐसा हो जो अधिकांश लोगों के द्वारा उपेक्षित हो। वह प्राणी छोटा हो चाहे बड़ा। गणेश को उसकी कोई चिन्ता नहीं थी। वह अपना वाहन सावधानीपूर्वक ढूँढ़ने लगे।
अन्ततः उन्हें वह प्राणी मिल ही गयी। वह था मूषक। इससे उपेक्षित प्राणी कोई और नहीं हो सकता था। वह बेचारा कीड़ों-मकोड़ों को खाकर पृथ्वी के पर्यावरण को सन्तुलित रखने में सहायक होता है किन्तु उसी के पीछे पड़े रहते हैं। इसलिए उसे धरती के नीचे एक नहीं कई छिद्र बनाकर रहना पड़ता है। एक से खतरे का अनुभव हो तो दूसरे से निकलने का प्रयास करता है, दूसरे से हो तो तीसरे से। श्वान और श्रृगाल की तरह के हिंसक जीव तो इसके पीछे पड़े ही रहते हैं।
ऊपर आकाश में उड़ने वाले गृद्ध, काक एवं चील के समान पक्षी भी चोंच के प्रहार से लहूलुहान कर देते हैं और अपना आहार बनाने को उत्सुक रहते हैं। मनुष्य तो खूब हैं। खाद्य-अखाद्य का महत्त्व कुछ नहीं समझते हैं। इनकी एक विशेष जाति की जिह्ना को मूषक के मांस की ही स्वाद लगी हुई है। ये लोग मूषक के छिद्रों में पानी डाल कर उसे बाहर निकलने को बाध्य करते हैं और फिर उसकी हत्या कर अपनी झोली में डाल लेते हैं।
मनुष्य का मित्र यह मूषक उसके घर में उसके साथ ही रहना चाहता है। कभी-कभी उत्सुकतावश कुछ कपड़े, कुछ कागज़ अवश्य ही कुतर देता है। इसके फलस्वरूप इसे विशेष पिंजड़ों में फंसा कर गाँव, नगर के बाहर कर दिया जाता है। अधिक क्रूर मनुष्य हुआ हो तो चूहेदानी में रोटी का एक टुकड़ा डालकर इस गिरीह को अपने प्राणों से हाथ गवांने को बाध्य कर देता है।
मनुष्य एवं हिंसक पशुओं, पक्षियों के अलावा इसकी सबसे बड़ी शत्रु बिल्ली होती है। मूषक विचारे इन व्याघ्र की मौसी बिल्ली से इतने डरते हैं कि जिस घर में बिल्ली के म्याउँ सुनाई पड़ जाए उससे सभी के सभी भाग खड़े होते हैं।
गणेश ने सोचा, मूषक विचारा देखने में कितना सुन्दर होता है ! भूरे रंग का, लंबी पूँछ वाला यह छोटा-सा जीव मन को आकृष्ट कर लेता है। यह भागने में भी बहुत मन्द नहीं है। भले कार्तिकेय के मयूर की तरह उड़ता नहीं हो। और कार्तिकेय का मोर उड़ता भी क्यों है ! फुदकता है, वह कोई हंस तो ठहरा नहीं, बगला तो है नहीं, अतः हमारा मूषक बहुत बुरा वाहन नहीं सिद्ध होगा। साथ ही मेरा वाहन बन जाने से शायद और, प्राणियों को तो नहीं, कम-से-कम मनुष्य को तो इसकी हत्या करने में या इसे उत्पीड़ित करने में कई बार सोचना पड़े। रह गया मेरा भारी-भरकम शरीर। इसे ढोना मूषक के बस की बात क्या होगी, किन्तु मैं योगिराज शिव का पुत्र हूँ, अतः योगबल से अपने शरीर को इतना हल्का बना लूँगा कि उसकी पीठ पर कोई भार नहीं आएगा। अतः गणेश ने मूषक को अपने वाहन के रूप में चुन लिया।
उधर पार्वती का वाहन सिंह था। शिव ने वृषभ (नन्दी) को अपना वाहन बना रखा था। अशान्ति स्वाभाविक थी। शिव-वाहन नन्दी पर पार्वती-वाहन सिंह की दृष्टि लगी रहती थी। कब अवसर मिले की उसे चपेट में लें। शिव के गले में लिपटे सर्पों को मूषक प्यारा था। गणेश के वाहन मूषक को कार्तिकेय के मयूर से भी कम भय नहीं था।
शिव परेशान रहते। सबों के मध्य सन्तुलन बनाए रखना उनके लिए सदा सिरदर्द बना रहता। शिव को अपने गले में लिपटे भुजंगों के लिए कार्तिकेय का मयूर भी कम घातक नहीं था।
यह अशान्ति तो चलती ही रहती थी किन्तु इसी मध्य आनन्द-प्रमोद भी कैलास-शिखर पर होता रहता। कार्तिकेय और गणेश कभी-कभी झगड़ जो लेते हों किन्तु भाई-भाई का प्रेम भी अपने रूप में पनपता रहता था। कार्तिकेय के लिए फिर भी सबसे खटकने वाली बात गणेश का उनके छह मुखों को लेकर चिढ़ाने वाली थी। इसका भी वे क्या कर सकते थे ? छह मुख तो उन्हें मिल ही चुके थे। गणेश के चिढ़ाने का भी वे क्या करते ? ऐसी स्थिति में वे मन मसोस कर रह जाते। गणेश सब कुछ के बाद कार्तिकेय को चिढ़ाने से बाज नहीं आते और अक्सर उन्हें छह मुखी (षडानन) कहकर चिढ़ाते ही रहते। गणेश को अफसोस हो रहा था कि उन्हें पता होता कि एक दिन वह स्वयं ही अपने मुँह को लेकर विस्मय के पात्र बन जाएँगे तो वे कार्तिकेय को इस तरह कभी नहीं चिढ़ाते।
अन्ततः वह दिन आ ही गया जब गणेश कार्तिकेय को चिढ़ाने से बाज आना पड़ा।
2
प्रेम हो या स्नेह, श्रद्धा अथवा विश्वास, इन पर किसका अधिकार चला है ?
किससे अधिक प्रेम हो जाए या किससे कम इसका निर्णय कैसे और कौन कर सकता है
? पार्वती को गणेश के जन्म से ही उनसे सार्वाधिक स्नेह हो गया था। इसके
पूर्व उनके संपूर्ण प्रेम के अधिकारी कार्तिकेय ही थे। पार्वती को भी
अनुमान नहीं हो पा रहा था कि सहसा गणेश को कार्तिकेय की अपेक्षा अधिक
क्यों चाहने लगी थीं।
सामान्यतः माना जाता है कि छोटी सन्तान से माता-पिता को अधिक प्रेम होता है। पार्वती सोचती थीं कि शायद इसी प्राकृतिक नियम का आखेट हो वह पुत्र गणेश को सार्वाधिक प्यार देने लगी थीं। जब भी आवश्यकता पड़े प्रायः वह गणेश को ही पुकारतीं, विशेषकर निजी कार्यों के लिए। कैलास पर गणों की कमी नहीं थी। पार्वती या शिव की एक पुकार पर कई गण उपस्थित हो सकते थे।
विशेष निजी कार्य हो तब पार्वती गणेश या कार्तिकेय किसी को भी पुकार सकती थीं। लेकिन वास्तविकता में होता यह था कि शिव अपने विशेष कार्यों के लिए कार्तिकेय को पुकारते थे और पार्वती अपने विशेष कार्यों के लिए गणेश को। कैलास पर यह प्रचारित हो चुका था कि कार्तिकेय शिव को प्रिय हैं और गणेश पार्वती को।
पार्वती एक दिन स्नानमज्जन सम्पन्न कर रही थीं। ऐसा तो वह नित्य ही करती थीं परन्तु आज विलम्ब हो गया था। सदाशिव कभी भी पार्वती-महल में पहुँच सकते थे। पार्वती नहीं चाहती थी कि स्नान के समय ही शिव पधार जाएँ। उन्होंने गणेश को पुकारा। वह थोड़ी दूर बर्फ में खेल रहे थे और ऊपर से झरती बर्फ को मुट्ठियों में बन्द करके उसके गोले बना रहे थे। माता की आवाज़ पर वे दौड़े हुए पहुँचे।
‘‘क्या आदेश है माता ?’’
‘‘देखो मैं कपाट बन्द कर कुछ कार्य कर रही हूँ। तुम द्वारपाल के रूप में दरवाजे पर खड़े रहो। किसी भी व्यक्ति को अन्दर नहीं आने देना। चाहे वह कोई भी हो।’’ पार्वती ने कहा।
‘जैसी आज्ञा माता !’ कहकर गणेश द्वार पर अड़ गए ! कई देवी-देवता, कई गण आदि माता को प्रणाम करने और अपने मनोवांछित वरदान लेने पहुँचे। गणेश ने सबको अन्दर जाने से मना कर दिया। सभी उनकी बात मानकर लौट गए। गणेश प्रसन्न थे कि बिना कठिनाई अपने दायित्व का निर्वाह करते जा रहे थे।
कुछ क्षण पश्चात् स्वयं पिता पशुपति शिव एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू लिए आते हुए दृष्टिगोचर हुए। गणेश घबराए, अगर पिता ने अंदर जाने का निश्चय किया तो वह क्या करेंगे ? माता से इस संबंध में अलग से पूछा भी नहीं था। फिर उन्हें याद आई कि माता ने कहा था, किसी को अन्दर नहीं आने देना, चाहे वह कोई भी हो। कोई में तो पिता भी निस्संदेह आते हैं। गणेश ने मन-ही-मन प्रण कर लिया कि अगर पिता भी अन्दर जाना चाहें तो उन्हें भी वह किसी स्थिति में नहीं जाने देंगे।
तब तक भोले शंकर द्वार के समीप आ पहुँचे थे। गणेश द्वार रोक के खड़े हो गए।
‘‘मार्ग दो।’’ शिव ने कहा।
‘‘यह नहीं हो सकता।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘माता जी की आज्ञा है।’’
‘‘फिर भी जाने दो।’’
‘‘मैंने कहा न यह नहीं हो सकता।’’
गणेश पूरी तरह अड़ गए।
‘‘क्यों नहीं हो सकता ? अगर तुम माता की आज्ञा लेकर यहाँ डटे हो तो मैं तुम्हारा पिता हूँ, यह तो पता है ?’’ सदाशिव कुछ झुँझलाकर बोले।
‘‘पता है। पता नहीं हो यह हो कैसे सकता है ?’’
‘‘तो फिर मुझे जाने दो।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘क्योंकि पिता माता से बड़ा होता है।’’
‘‘यह अपने अपने मानने की बात है,’’ गणेश बोले, ‘‘किसी के लिए पिता बड़ा होता होगा। अधिकांश के लिए तो माता ही बड़ी होती है। कहा भी गया है जननी और जन्म-भूमि स्वर्ग से भी बड़ी है - ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसि।’
‘‘तो माता तुम्हारे लिए पिता से बड़ी है !’’ शिव ने क्रोधित होकर पूछा।
‘‘यह तो मैंने स्पष्ट कर दिया।’’ गणेश बोले।
‘‘मैं अन्तिम बार पूछता हूँ, मुझे अन्दर जाने देते हो कि नहीं ?’’ शिव ने क्रोधित होकर पूछा।
‘‘नहीं। किसी भी स्थिति में नहीं। मैं माता की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता।’’
‘‘मेरा क्रोध जगत-विख्यात है तुम को पता है कि नहीं ?’’ शिव का क्रोध सातवें आसमान पर था।
‘‘पता है।’’ गणेश ने निर्भीक कहा।
‘‘तो यह लो’’ शिव ने ऐसा कहते हुए त्रिशूल से गणेश का सिर उनके धड़ से अलग कर दिया।
गणेश के सिर से रक्त का फव्वारा फूट चला। चारों और आर्तनाद व्याप्त हो गया। बहुत सारे गण वहाँ एकत्रित हो गए। गणेश का प्राण रहित शरीर जमीन पर पड़ा था।
बाहर का भीषण कोलाहल सुनकर अन्दर पार्वती ने शीघ्रता में अपने वस्त्र धारण किए, और बाहर आकर वहाँ की स्थिति देखी तो उनके कलेजे की धड़कन बन्द होने लगी। बालक गणेश उनको अत्यंत प्रिय थे। थोड़ी देर बाद किसी तरह अपने को सम्भाला तो पति महादेव से पूछा, ‘‘आपके रहते मेरे गणेश की यह हालत कैसे हुई ?’’ किसक
सभी शिव की ओर देख रहे थे। पार्वती को वास्तविक स्थिति समझने में देर नहीं लगी। उन्होंने भगवान शिव की ओर ध्यान से देखा। क्रोध से उनका संपूर्ण शरीर आँधी में पड़े पेड़ की तरह काँप रहा था। मुख पर जैसे रक्त उतर आया था और वह पलास के फूल की तरह रक्तवर्णी हो आया था। अकस्मात् पार्वती का ध्यान शिव के त्रिशूल की ओर गया। वह रक्त-सना था।
पार्वती ने अविश्वासपूर्ण शब्दों में पूछा, ‘‘यह जघन्य कार्य क्य
ा आप ही ने किया है।’’
‘‘हाँ मैंने किया है।’’ सदाशिव क्रोधित शब्दों में बोले।
पार्वती फफकर रो पड़ीं। दोनों आँखों में अश्रुओं का अविरल प्रवाह जारी था। इसी बीच वह किसी तरह पूछ बैठीं, ‘‘अपने ही पुत्र की हत्या का कारण ? इस बालक से ऐसा कौन-सा अपराध बन गया ?’’
‘‘यह कहो कि कौन-सा अपराध नहीं बना ?’’ शिव क्रोधावेश में ही बोले, ‘‘इसने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया। मैं अन्दर जाना चाहता था किन्तु इसने मुझे ऐसा करने से रोका। मेरे आदेश पर भी यह द्वार से नहीं हटा।’’
‘‘तो इस अपराध के लिए ही इसे मृत्यु-दण्ड का भागी बनना था ?’’ पार्वती विलखती हुई बोलीं।
‘‘मेरी आज्ञा के उल्लंघन का इससे कम बड़ा दण्ड क्या हो सकता था ?’’ शिव का क्रोध शान्त नहीं हो रहा था।
‘‘ठीक है, आपका निर्णय अपनी जगह पर, मैं अपने पुत्र की मृत्यु नहीं सहन कर सकती। मैं अभी से अन्न-जल का परित्याग करती हूँ और इस प्रकार अपने प्राणों का त्याग कर दूँगी।’’
ऐसा कहकर पार्वती अन्दर जाकर अपने पलंग पर पड़ गई। शिव ने अन्दर आकर कपाट बन्द किया और पार्वती को मनाने में लग गए। पार्वती मानने से रहीं, उन्होंने कहा, ‘‘जब गणेश नहीं रहा तो मेरे जीवन-धारण का कोई अर्थ नहीं। मैं अपने प्राण-त्याग कर रहूँगी।’’
शिव का क्रोध धीरे-धारे शान्त हुआ। वह बोले, ‘‘तुम अन्न-जल ग्रहण करो। गणेश को मैं जीवित कर दूँगा। मेरी शक्ति में तो तुम को विश्वास है !’’
पार्वती ने आँसुओं के प्रवाह पर नियंत्रण करने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘सर्वप्रथम मैं गणेश को जीवित देखना चाहती हूँ। इसके पश्चात् ही मेरे अन्न-जल ग्रहण करने का प्रश्न उठेगा। आप तो त्रिदेवों में एक हैं। इतना ही नहीं, देवाधिदेव महादेव हैं। आपकी शक्ति में अविश्वास का कोई कारण नहीं हो सकता। आप क्षण-मात्र में गणेश को पुनः जीवित कर सकते हैं। सब कुछ होते हुए भी आप योगिराज भी हैं। आपके लिए क्या असंभव है ?’’
शिव ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘यह बताओ गणेश तो ऐसा उद्दण्ड नहीं था, फिर उसने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया !’’
‘‘वह मेरी आज्ञा का पालन कर रहा था। मेरा आदेश था कि कोई भी अन्दर नहीं आ सकता तो फिर वह आपको कैसे द्वार के भीतर आने देता ! अब जो हो गया सो हो गया। आप अपने योगबल से मेरे पुत्र को जीवित कीजिए वरना पुत्र तो गया ही। पत्नी से भी वंचित रहने को प्रस्तुत हो जाइए।
सामान्यतः माना जाता है कि छोटी सन्तान से माता-पिता को अधिक प्रेम होता है। पार्वती सोचती थीं कि शायद इसी प्राकृतिक नियम का आखेट हो वह पुत्र गणेश को सार्वाधिक प्यार देने लगी थीं। जब भी आवश्यकता पड़े प्रायः वह गणेश को ही पुकारतीं, विशेषकर निजी कार्यों के लिए। कैलास पर गणों की कमी नहीं थी। पार्वती या शिव की एक पुकार पर कई गण उपस्थित हो सकते थे।
विशेष निजी कार्य हो तब पार्वती गणेश या कार्तिकेय किसी को भी पुकार सकती थीं। लेकिन वास्तविकता में होता यह था कि शिव अपने विशेष कार्यों के लिए कार्तिकेय को पुकारते थे और पार्वती अपने विशेष कार्यों के लिए गणेश को। कैलास पर यह प्रचारित हो चुका था कि कार्तिकेय शिव को प्रिय हैं और गणेश पार्वती को।
पार्वती एक दिन स्नानमज्जन सम्पन्न कर रही थीं। ऐसा तो वह नित्य ही करती थीं परन्तु आज विलम्ब हो गया था। सदाशिव कभी भी पार्वती-महल में पहुँच सकते थे। पार्वती नहीं चाहती थी कि स्नान के समय ही शिव पधार जाएँ। उन्होंने गणेश को पुकारा। वह थोड़ी दूर बर्फ में खेल रहे थे और ऊपर से झरती बर्फ को मुट्ठियों में बन्द करके उसके गोले बना रहे थे। माता की आवाज़ पर वे दौड़े हुए पहुँचे।
‘‘क्या आदेश है माता ?’’
‘‘देखो मैं कपाट बन्द कर कुछ कार्य कर रही हूँ। तुम द्वारपाल के रूप में दरवाजे पर खड़े रहो। किसी भी व्यक्ति को अन्दर नहीं आने देना। चाहे वह कोई भी हो।’’ पार्वती ने कहा।
‘जैसी आज्ञा माता !’ कहकर गणेश द्वार पर अड़ गए ! कई देवी-देवता, कई गण आदि माता को प्रणाम करने और अपने मनोवांछित वरदान लेने पहुँचे। गणेश ने सबको अन्दर जाने से मना कर दिया। सभी उनकी बात मानकर लौट गए। गणेश प्रसन्न थे कि बिना कठिनाई अपने दायित्व का निर्वाह करते जा रहे थे।
कुछ क्षण पश्चात् स्वयं पिता पशुपति शिव एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू लिए आते हुए दृष्टिगोचर हुए। गणेश घबराए, अगर पिता ने अंदर जाने का निश्चय किया तो वह क्या करेंगे ? माता से इस संबंध में अलग से पूछा भी नहीं था। फिर उन्हें याद आई कि माता ने कहा था, किसी को अन्दर नहीं आने देना, चाहे वह कोई भी हो। कोई में तो पिता भी निस्संदेह आते हैं। गणेश ने मन-ही-मन प्रण कर लिया कि अगर पिता भी अन्दर जाना चाहें तो उन्हें भी वह किसी स्थिति में नहीं जाने देंगे।
तब तक भोले शंकर द्वार के समीप आ पहुँचे थे। गणेश द्वार रोक के खड़े हो गए।
‘‘मार्ग दो।’’ शिव ने कहा।
‘‘यह नहीं हो सकता।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘माता जी की आज्ञा है।’’
‘‘फिर भी जाने दो।’’
‘‘मैंने कहा न यह नहीं हो सकता।’’
गणेश पूरी तरह अड़ गए।
‘‘क्यों नहीं हो सकता ? अगर तुम माता की आज्ञा लेकर यहाँ डटे हो तो मैं तुम्हारा पिता हूँ, यह तो पता है ?’’ सदाशिव कुछ झुँझलाकर बोले।
‘‘पता है। पता नहीं हो यह हो कैसे सकता है ?’’
‘‘तो फिर मुझे जाने दो।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘क्योंकि पिता माता से बड़ा होता है।’’
‘‘यह अपने अपने मानने की बात है,’’ गणेश बोले, ‘‘किसी के लिए पिता बड़ा होता होगा। अधिकांश के लिए तो माता ही बड़ी होती है। कहा भी गया है जननी और जन्म-भूमि स्वर्ग से भी बड़ी है - ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसि।’
‘‘तो माता तुम्हारे लिए पिता से बड़ी है !’’ शिव ने क्रोधित होकर पूछा।
‘‘यह तो मैंने स्पष्ट कर दिया।’’ गणेश बोले।
‘‘मैं अन्तिम बार पूछता हूँ, मुझे अन्दर जाने देते हो कि नहीं ?’’ शिव ने क्रोधित होकर पूछा।
‘‘नहीं। किसी भी स्थिति में नहीं। मैं माता की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता।’’
‘‘मेरा क्रोध जगत-विख्यात है तुम को पता है कि नहीं ?’’ शिव का क्रोध सातवें आसमान पर था।
‘‘पता है।’’ गणेश ने निर्भीक कहा।
‘‘तो यह लो’’ शिव ने ऐसा कहते हुए त्रिशूल से गणेश का सिर उनके धड़ से अलग कर दिया।
गणेश के सिर से रक्त का फव्वारा फूट चला। चारों और आर्तनाद व्याप्त हो गया। बहुत सारे गण वहाँ एकत्रित हो गए। गणेश का प्राण रहित शरीर जमीन पर पड़ा था।
बाहर का भीषण कोलाहल सुनकर अन्दर पार्वती ने शीघ्रता में अपने वस्त्र धारण किए, और बाहर आकर वहाँ की स्थिति देखी तो उनके कलेजे की धड़कन बन्द होने लगी। बालक गणेश उनको अत्यंत प्रिय थे। थोड़ी देर बाद किसी तरह अपने को सम्भाला तो पति महादेव से पूछा, ‘‘आपके रहते मेरे गणेश की यह हालत कैसे हुई ?’’ किसक
सभी शिव की ओर देख रहे थे। पार्वती को वास्तविक स्थिति समझने में देर नहीं लगी। उन्होंने भगवान शिव की ओर ध्यान से देखा। क्रोध से उनका संपूर्ण शरीर आँधी में पड़े पेड़ की तरह काँप रहा था। मुख पर जैसे रक्त उतर आया था और वह पलास के फूल की तरह रक्तवर्णी हो आया था। अकस्मात् पार्वती का ध्यान शिव के त्रिशूल की ओर गया। वह रक्त-सना था।
पार्वती ने अविश्वासपूर्ण शब्दों में पूछा, ‘‘यह जघन्य कार्य क्य
ा आप ही ने किया है।’’
‘‘हाँ मैंने किया है।’’ सदाशिव क्रोधित शब्दों में बोले।
पार्वती फफकर रो पड़ीं। दोनों आँखों में अश्रुओं का अविरल प्रवाह जारी था। इसी बीच वह किसी तरह पूछ बैठीं, ‘‘अपने ही पुत्र की हत्या का कारण ? इस बालक से ऐसा कौन-सा अपराध बन गया ?’’
‘‘यह कहो कि कौन-सा अपराध नहीं बना ?’’ शिव क्रोधावेश में ही बोले, ‘‘इसने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया। मैं अन्दर जाना चाहता था किन्तु इसने मुझे ऐसा करने से रोका। मेरे आदेश पर भी यह द्वार से नहीं हटा।’’
‘‘तो इस अपराध के लिए ही इसे मृत्यु-दण्ड का भागी बनना था ?’’ पार्वती विलखती हुई बोलीं।
‘‘मेरी आज्ञा के उल्लंघन का इससे कम बड़ा दण्ड क्या हो सकता था ?’’ शिव का क्रोध शान्त नहीं हो रहा था।
‘‘ठीक है, आपका निर्णय अपनी जगह पर, मैं अपने पुत्र की मृत्यु नहीं सहन कर सकती। मैं अभी से अन्न-जल का परित्याग करती हूँ और इस प्रकार अपने प्राणों का त्याग कर दूँगी।’’
ऐसा कहकर पार्वती अन्दर जाकर अपने पलंग पर पड़ गई। शिव ने अन्दर आकर कपाट बन्द किया और पार्वती को मनाने में लग गए। पार्वती मानने से रहीं, उन्होंने कहा, ‘‘जब गणेश नहीं रहा तो मेरे जीवन-धारण का कोई अर्थ नहीं। मैं अपने प्राण-त्याग कर रहूँगी।’’
शिव का क्रोध धीरे-धारे शान्त हुआ। वह बोले, ‘‘तुम अन्न-जल ग्रहण करो। गणेश को मैं जीवित कर दूँगा। मेरी शक्ति में तो तुम को विश्वास है !’’
पार्वती ने आँसुओं के प्रवाह पर नियंत्रण करने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘सर्वप्रथम मैं गणेश को जीवित देखना चाहती हूँ। इसके पश्चात् ही मेरे अन्न-जल ग्रहण करने का प्रश्न उठेगा। आप तो त्रिदेवों में एक हैं। इतना ही नहीं, देवाधिदेव महादेव हैं। आपकी शक्ति में अविश्वास का कोई कारण नहीं हो सकता। आप क्षण-मात्र में गणेश को पुनः जीवित कर सकते हैं। सब कुछ होते हुए भी आप योगिराज भी हैं। आपके लिए क्या असंभव है ?’’
शिव ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘यह बताओ गणेश तो ऐसा उद्दण्ड नहीं था, फिर उसने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया !’’
‘‘वह मेरी आज्ञा का पालन कर रहा था। मेरा आदेश था कि कोई भी अन्दर नहीं आ सकता तो फिर वह आपको कैसे द्वार के भीतर आने देता ! अब जो हो गया सो हो गया। आप अपने योगबल से मेरे पुत्र को जीवित कीजिए वरना पुत्र तो गया ही। पत्नी से भी वंचित रहने को प्रस्तुत हो जाइए।
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